बचपन के दिन सबसे सुंदर कविता | मासूम बचपन पर कविता | bachpan ki yaade kabita.

मासूम बचपन पर कविता
मासूम बचपन पर कविता

बचपन के दिन सबसे सुंदर कविता

 क्या दिन थे वे बचपन के..... 

                          तोतली जुबान थी, फिर भी सबको प्यार था

                           कोई डाटता नहीं, हर जगह सत्कार था

अब तो जुबान भी सुधर गई।

फिर भी बोलने पर एतराज हैं।

कोई सुनता नहीं,सभी नाराज हैं।

             पेट भरी थी,फिर भी मां को इंतजार था

           खाने का मन न था, पर मां के हाथ में निवाला तैयार था।

अब तो पेट भी खाली हैं, लेकिन...

कोई इंतजार करने वाला ना है...

आज भूख भी हैं, पर भोजन तैयार ना है।।

                               अब कुछ ना है सिवाय चुभन के.......

                               क्या दिन थे वे बचपन के..............

मिट्टी के हम खिलौने बनाते थे।

बड़े प्यार से अपने घरौंदे में सजाते थे।

                         अब तो गृहस्थी का सामान जुटाते हैं।

                        कैसे काट–कपट कर अपने घरों को चलाते हैं।

मां को बाल बनाने के लिए पूरे घर में दौड़ाते थे

दूध की इक–इक घूट पीने पर,

मानो मां पर एहसान जताते थे।

                          अब बाल बनाने का समय ही नहीं,

                          बाल छोटे करा लेते हैं।

                           दूध को छोड़ो,रोटी खाते हुए 

                           ऑफिस निकल जाते हैं।।

आज खुद को तलाशती हूं दर्पण में.......

क्या दिन थे वे बचपन के..............   

खेलते हुए गिर जाते थे, और...

मां के स्नेहिल चुंबन से , सारे दर्द भूल जाते थे।

टोली में झगड़ा होता ,तो मां–बापू मेरे पक्ष से

बच्चों से झगड़ा मोल लेते थे...

                      अब खुद गिरते है ,खुद ही संभल जाते हैं

                    और चोट लगने पर मेडिकिट लेकर बैठ जाते हैं।

आज सच्चाई के लिए बीच चौराहे पर

खड़े होकर चिल्लाने पड़ते हैं।

लेकिन एक भी गवाह ,

आगे नही आते है।।

               इक युद्ध छिड़ती है मानो अंतर्मन में.......

               क्या दिन थे वे बचपन के............

बापू के कंधे पर बैठ, मेले में जाते थे

गुड़ियां, चर्खी और खिलौने लाते थे।

मनचाहा न दिलाने पर , लेट कर रोने लगते थे।

                       आज समय हमसे छूट रहा हैं

                        ट्रेनों और बसों के लिए धक्के खा रहे हैं

                        मांग तो बहुत है मेरे ,जानती हूं.....

                         पर रोने पर भी कोई पूरा न करेगा।।

कल न ही कोई चिन्ता थी और न ही जिम्मेदारी।

बस हंसना–रूठना और यारी।।

                          अब तो उलझने ही हैं सारी.....

                           पता नही कैसे सुलझेगी हमारी।।

लगाव था परायों के अपनेपन में.....

क्या दिन थे वे बचपन के......  

                           छोटे थे कितना हर्ष व उमंग था

                            कहानियां सुनने और सुनाने का,

                            अपना एक अलग ही ढंग था।।

आज एक बेरंग जिंदगी जी रहे हैं।

न कोई उल्लास, ना कोई रंग हैं।

बचपन में वो बारिश का पानी और

उस पर तैरती कागज की नाव हमारी।

और नीम की डाल को छूती हुई झूला हमारी।।

        आज तरक्की की होड़ ने छीन लिए हैं मुझसे

       उन पलों की अनुभूतियां, और उन्हें फिर से जीने की इच्छा

एक झूठे शान की तलाश कर रहे जीवन में... 

क्या दिन थे वे बचपन के.....      

                    हमे सुलाने के लिए मां लोरी सुनाती थी।

                    फिर भी ना सोते तो बिल्लियों से डराती थी।।

आज सोना चाहते हैं, पर नीद नहीं है।

नीद आ जाए इसके लिए गोलियां खाते हैं।।

                    रूठते मान जाते, हमेशा हंसते थे ।

                    दर्द होता तो खुल कर रोते थे।।

आज भी हमेशा हंसते हैं, लेकिन—

खुद के दर्द को छिपाते हैं।

रोना चाहते हैं, पर मुस्कुरा कर दिखाते हैं

                    आज तकलीफ होती हैं क्षण–क्षण में......  

                     क्या दिन थे वे बचपन के......     

वो पगडंडियों पर उड़ती हुई तितली और

जुगनू को मुठ्ठी में बंद करना 

बारिश में भीगना, और आंधी आने पर आम बिनना

                                     कितने प्यारे थे वो पल ।

                                     हम प्रकृति के कितने करीब थे।।

खुद के बनाए इस कृत्रिम जीवन में ,

अब डर लगता है इसमें जीने से।

इस चकाचौध में आगे कहां जाऊंगी,

कुछ दिखाई नहीं देता।

                          प्रकृति के करीब जाना चाहती हूं।

                          बचपन में खो जाना चाहती हूं।।

जीना चाहती हूं, अपने लड़कपन में..... 

क्या दिन थे वे बचपन के......

@mr.khanzaada


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